The Ailing Planet: the Green Movement’s Role Summary Class 11 English

 

The Ailing Planet: the Green Movement’s Role Summary Class 11 English

The Ailing Planet the Green Movement's Role Summary Class 11 English

The Ailing Planet: the Green Movement’s Role Summary In English

The Green Movement started nearly twenty-five years ago. The world’s first nationwide Green party was founded in New Zealand in 1972. Since then, the movement has not looked back. In fact, no other movement in world history has excited human race so much as the Green Movement. For the first time, there is a growing awareness that the earth itself is a living organism. It has its own metabolic needs and essential processes.

The signs pertaining to the Earth’s life show a patient in declining health. People have now fully realised their moral duty to be good custodians of the planet and responsible trustees of the legacy to future generations.

The World Commission on Environment and Development popularized the concept of sustainable development in 1987. It defined the idea as the development that meets the needs of the present with out endangering the ability of future generations to meet their needs.

Man is the most dangerous animal in the world. Now he has realized the wisdom of shifting from a system based on domination to one based on partnership. Scientists have arranged list of 1.4 million living species on earth besides man. About three to hundred million other living species still stay unnamed in humiliating darkness.

The Brandt Commission was the first International Commission to deal with the question of ecology and environment. The first Brandt report raised the question whether we were to leave our successors a dried earth of increasing deserts, poor landscapes and ailing environment. Mr. Lester R. Brown has listed Earth’s four main biological systems. These are fisheries, forests, grasslands and croplands. They form the basis of the world’s economic system. They supply us food and raw materials for industry. In large areas of the world, these systems are reaching unsustainable level. Their productivity is being damaged. When this happens, fisheries break down, forests disappear, grasslands are changed into barren wastelands and croplands become worse.

Overfishing is common in protein hungry world. In poor countries, local forest are destroyed to obtain fuel for cooking. Tropical forests are wearing away at the rate of forty to fifty millions acres a year. The growing use of dung for burning deprives the soil of an important natural fertiliser. Over the last four decades ‘India’s forests have reached disastrous exhaustion. India is losing its forests at the rate of 3.7 million acres a year. Large areas, officially named forest land, are almost treeless. A UN study warns that the environment has deteriorated quite badly in many of the eighty-eight countries investigated.

The growth of world population is one of the strongest factors distorting the future of human society. Mankind reached the first billion mark in more than a million years. That was the world population in the year 1800. By the year 1900, a second billion was added. The twentieth century has added another 3.7 billion. The present world population is estimated at 5.7 billion. Every four days the world population increases by one million.

Fertility falls as income rises, education spreads and health improves. Development is the best contraceptive. However, development may not be possible if population goes on increasing at this rate. The population of India is estimated to be 920 million in 1994. It is more than the entire populations of Africa and South America put together. Unless population control is given top most priority, the hope of the people would die in their hungry hutments. There is no alternative to voluntary family planning without an element of coercion. The choice is really between control of population and continuation of poverty.

We notice a surpassing concern. People are worried not only about their own survival but that of the planet as well. People have begun to take an over-all view of the very basis of life. The environmental problem is our passport for the future. A new world vision has emerged. It has ushered in the Era of Responsibility. It is a holistic view, an ecological view. We now see the world as an integrated whole rather than separate parts.

Industry has very important role to play in this new Era of Responsibility. Leading businessmen should excel in environmental performance. Then they can continue to exist as leading manufacturers. The words of Margaret Thatcher are used frequently. She remarked: No generation has a free hold on this earth. All we have is a life tenancy with a full repairing lease.’Mr. Lester Brown, the author of ‘The Global Economic Prospecť rightly observes, “We have not inherited this earth from our forefathers, we have borrowed it from our children.”

The Ailing Planet: the Green Movement’s Role Summary In Hindi

हरित आन्दोलन लगभग 25 वर्ष पहले आरम्भ हुआ। संसार का पहला राष्ट्रव्यापी हरित-दल 1972 में न्यूजीलैंड में स्थापित किया गया। उसके उपरान्त इस आन्दोलन ने मुड़कर नहीं देखा है। वास्तव में, संसार में किसी अन्य आन्दोलन ने मानव जाति को इतना अधिक उत्तेजित नहीं किया है जितना कि हरित आन्दोलन ने। पहली बार यह चेतना बढ़ी है कि पृथ्वी स्वयं भी एक जीवधारी रचना है। इसकी अपनी जीव सम्बन्धी आवश्यकताएं एवं अति आवश्यक प्रक्रियाएं हैं।

पृथ्वी के जीवन सम्बन्धी चिन्ह एक मरीज को अवनतिशील स्वास्थ्य में दिखाते हैं। लोगों ने अब धरती के भले रखवाले तथा भविष्य की पीढ़ियों की धरोहर के उत्तरदायी ट्रस्टी होने के अपने नैतिक कर्तव्य को भलीभांति समझ लिया है।

1987 में पर्यावरण एवं विकास पर संसार के कमीशन ने जारी रखे जाने योग्य विकास की धारणा को लोकप्रिय किया। इसने इस विचार की परिभाषा ऐसे विकास के रूप में की जो कि लोगों की भविष्य की पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की योग्यताओं को खतरे में डाले बिना उनकी अपनी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करे।

मनुष्य संसार का सबसे खतरनाक प्राणी है। अब उसने प्रभुत्व पर आधारित प्रणाली से भागीदारी की प्रणाली में बदलने की बुद्धिमत्ता को समझ लिया है। वैज्ञानिको ने मनुष्य के अतिरिक्त पृथ्वी पर 14 लाख जीवित प्रजातियों की सूची तैयार की है। लगभग 30 लाख से 1000 लाख अन्य जीवित प्रजातियाँ (नस्लें) अभी भी अपमानजनक अन्धकार में गुमनाम पड़ी हैं।

बैंड्ट कमीशन पहला अन्तर्राष्ट्रीय कमीशन था जिसने पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से सरोकार रखा। पहली बैंड्टे प्रतिवेदन (रिपोर्ट) ने यह प्रश्न उठाया कि क्या हम अपने उत्तराधिकारियों के लिए बढ़ते हुए मरुस्थलों की सूखी धरती, दरिद्र दृश्यावलियाँ तथा एक बीमार पर्यावरण छोड़ जाएंगे। मि० लिस्टर आर० ब्राउन ने पृथ्वी की चार मुख्य जीव विद्या सम्बन्धी प्रणालियों की सूची बनाई है। ये हैं: मत्स्य (मछलियों), वन, घास के मैदान तथा कृषियोग्य भूमि। ये संसार की आर्थिक प्रणाली का आधार बनाते हैं। ये हमें भोजन तथा उद्योगों के लिए कच्चा माल देते हैं। संसार के विशाल क्षेत्रों में ये प्रणालियाँ जारी न रखे जाने योग्य स्तर तक पहुँच गई हैं। उनकी उत्पाद क्षमता को क्षति पहुँच रही है। जब ऐसा घटित होता है तो मछलीपालन का क्षय हो जाता है, वन अदृश्य हो जाते हैं, घास के मैदान-बंज़र ऊबड़-खाबड़ भूमि में परिवर्तित हो जाते हैं तथा फसल (कृषि) वाली भूमि खराब हो जाती है।

अधिक संख्या में मछलियाँ पकड़ना प्रोटीन के लिए भूखे संसार में सामान्य बात है। निर्धन देशों में खाना पकाने के लिए ईंधन प्राप्त करने के लिए वनों को नष्ट किया जाता है। उष्णकटिबन्धीय वन चालीस से पचास मिलियन (चार से पांच करोड़) एकड़ प्रति वर्ष के हिसाब से क्षीण हो रहे हैं। जलाने के लिए गोबर का बढ़ता हुआ उपयोग भूमि को एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक उर्वरक (खाद) से वंचित करता है। पिछले चार दशकों में भारत के वन आपत्तिकारक रिक्तीकरण तक पहुँच गए है। भारत 37 लाख एकड़ प्रति वर्ष की दर से वन गॅवाता जा रहा है। विशाल क्षेत्र, जो सरकारी रूप से वन भूमि नामित हैं, लगभग वृक्षविहीन हैं। संयुक्त राष्ट्र का एक अध्ययन चेतावनी देता है कि अठासी जाँच किए गए देशों में से कई में पर्यावरण का बहुत बुरी तरह से पतन हुआ है।

संसार की जनसंख्या में वृद्धि मानव समाज के भविष्य में विकृत लाने वाले सुदृढ़ कारणों में से एक है। मानवता को पहला अरब (एक बिलियन) की स्तर (चिन्ह) पहुँचने के लिए दस लाख से अधिक वर्ष लगे। यह संसार की 1800 ई० में जनसंख्या थी। 1900 ई० तक एक अन्य बिलियन दस अरब जोड़ दिया गया। बीसवीं शताब्दी ने और 37 अरब (3.7 बिलियन) जोड़ दिया है। संसार की वर्तमान जनसंख्या को 5.7 अरब होने का अनुमान लगाया जाता है। प्रत्येक चार दिन में संसार की जनसंख्या दस लाख बढ़ जाती है।

जैसे-जैसे आय बढ़ती है तथा स्वास्थ्य सुधरता है तो उपजाऊपन कम होता है। विकास सबसे अच्छा (जनसंख्या) निरोधक है। किन्तु यदि जनसंख्या इसी दर से बढ़ती रहेगी, तो विकास भी सम्भव नहीं हो पायेगा। 1994 ई० में भारत की जनसंख्या 92 करोड़ होने का अनुमान लगाया गया है। यह अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका दोनों की पूरी जनसंख्या को एक साथ जोड़ने पर भी इनसे अधिक है। जब तक जनसंख्या नियन्त्रण को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक लोगों की आशा उनकी भूखी झोंपड़ियों में ही मर जाएगी। किसी दबाव (जोर-जबरदस्ती) के तत्त्व से रहित, स्वैच्छिक परिवार नियोजन का कोई विकल्प नहीं है। वास्तव में चुनाव तो जनसंख्या के नियन्त्रण तथा निर्धनती (गरीबी) जारी रखने के बीच में है।

हम एक बढ़ती हुई चिन्ता देखते हैं। लोग न केवल अपने जीवित रहने के विषय में चिन्तित हैं बल्कि इस ग्रह पृथ्वी के विषय में भी। लोग जीवन के आधार के विषय में व्यापक दृष्टि रखने लगे हैं। पर्यावरण की समस्या हमारे लिए भविष्य को सम्भावित करने वाली है। संसार का एक नया आभास (दृष्टि) उत्पन्न हुई है। इसने उत्तरदायित्व के युग का श्री गणेश (आरम्भ) किया है। यह एक समग्र दृष्टि है, परस्पर संबंधों वाली दृष्टि। अब हम संसार को पृथक भागों के बजाय अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ पूर्ण रूप समझते हैं।

उत्तरदायित्व के इस युग में उद्योगों को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। अग्रणी उद्योगपतियों को वातावरण सम्बन्धी कार्यों में आगे बढ़ना चाहिए। तब वे अग्रिम पंक्ति के निर्माणकर्ताओं के रूप में भी जारी रह सकते हैं। मारग्रेट थैचर के शब्द प्रायः प्रयोग किए जाते हैं। उसने कहा था: किसी भी पीढ़ी का इस पृथ्वी पर असीमित समय के लिए अधिकार नहीं है। जो कुछ हमारे पास है वह जीवन पर्यन्त निवास है-जिसमें पूरी तरह से मरम्मत करने का अधिकार है। ‘द ग्लोबल इकॉनामिक प्रॉस्पेक्ट’ नामक पुस्तक के लेखक मि० लेस्टर ब्राउन ने सही (उचित)कहा है, ‘हमने यह भूमि अपने पूर्वजों से पैतृक रूप से प्राप्त नहीं की है, हमने इसे अपने बच्चों से उधार लिया है।’

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